Tuesday, October 12, 2010

3.














मै घंटी हूँ|
मनुष्यों की तरह हाड़मांस की न सही,
लोहे से ही बनी
मै घंटी हूँ|

लेकिन मुझमे भी संवेदनाएं हैं,
चौंकिए नहीं|
यांत्रिक संवेदनाएं भी मानवीय संवेदनाओं से कम नहीं होतीं|

जब जब स्नेह से, सहजता से बजाई जाती हूँ,
मैं बजती हूँ,
क्योंकि मै घंटी हूँ|

किन्तु,
कल मैं नहीं बजी|
जानते हैं क्यों?

जहां पर मुझे बजने के लिए,
या यूँ कहिये बजाने के लिए रखा गया है,
जिस हाथ से मुझे बजना है,
वह हाथ, वह अंगुली, वह स्पर्श सहज नहीं है|

मेरा मालिक बेवजह छोटी छोटी बात पर,
मुझसे भी ज्यादा कर्कश स्वर में हमेशा चीखता रहता है,
डांटता ही रहता है|

तब मैं खामोश क्यों न हो जाऊं?
मेरे हिस्से का भी बजना,
वही तो करता है|
मैं लोहे की यन्त्र हो कर भी भावमय हूँ,
वह मानव हो कर भी,
पूर्ण यांत्रिक, भावशून्य है|

जब मुझ जैसी घंटी को,
संवेदना और सहजता की ज़रुरत है,
तब आप सब को क्यों नहीं?
बस यही सोच कर,
कल, हाँ कल,
मैं नहीं बजी|

वैसे मैं घंटी हूँ|

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