Saturday, June 11, 2011

5.















ज़िन्दगी मरुस्थल है|

मैं उसमे चल रही हूँ 
हर कदम पर मेरे पाँव 
ग़म के बालुओं में 
धँसते चले जाते हैं|
एक पाँव को निकालती हूँ
तो दूसरा धँसता  है
धूप भी तो तेज़ है 
और मैं,
थकान से निढाल हूँ|

ऐ काश! कहीं से भी 
एक बूँद पानी मिले
या फिर 
थोड़ी सी छाया
या
ऐसी हवा का एक झोंका 
जो फिर से
बालू में धँसने को
हिम्मत दे मुझे
ताकि फिर से चल सकूँ,

क्योंकि मरुस्थल ही ज़िन्दगी है|

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Life is a desert.

I walk in it,
and with each step, 
my feet sink
in the sands of pain.
I pull one leg out,
the second deluges.
This heat is sharp,
and I walk lonely,
exhausted,
with fatigue.

If only, 
from somewhere,
come a drop of water,
a little shade, or
gust of some wind
that could, 
for one more time,
provide some strength,
so that,
when I walk again, 
my feet sink
in the sands of pain.

Because, desert is only life.

Wednesday, October 20, 2010

4.

तुम्हारी बातें|

प्यार से बनती हैं,
पर अक्सर छील जाती हैं मुझे|

मैं तड़प उठती हूँ अपने प्यार पर,
अपने इस पागल दिल के इज़हार पर|

मचल उठते हैं आंसू आँखों में आने को,
तब तुम्हरी कोशिश शुरू होती है,
मुझे हंसाने को|

तुम्हे कैसे यकीन दिलाऊँ,
लैला सिर्फ मंजनू की थी,
उसकी ही रहेगी|

दरअसल,
मेरा प्यार, मेरा ऐतबार,
मेरी रूह, मेरी धड़कन,
सब कुछ तुम्हारे पास चली गयी है|

ऐसे में तुम्हे मुझपर,
यकीन आये भी तो कैसे?
क्योंकि मेरा तो अब कुछ नहीं|

Tuesday, October 12, 2010

3.














मै घंटी हूँ|
मनुष्यों की तरह हाड़मांस की न सही,
लोहे से ही बनी
मै घंटी हूँ|

लेकिन मुझमे भी संवेदनाएं हैं,
चौंकिए नहीं|
यांत्रिक संवेदनाएं भी मानवीय संवेदनाओं से कम नहीं होतीं|

जब जब स्नेह से, सहजता से बजाई जाती हूँ,
मैं बजती हूँ,
क्योंकि मै घंटी हूँ|

किन्तु,
कल मैं नहीं बजी|
जानते हैं क्यों?

जहां पर मुझे बजने के लिए,
या यूँ कहिये बजाने के लिए रखा गया है,
जिस हाथ से मुझे बजना है,
वह हाथ, वह अंगुली, वह स्पर्श सहज नहीं है|

मेरा मालिक बेवजह छोटी छोटी बात पर,
मुझसे भी ज्यादा कर्कश स्वर में हमेशा चीखता रहता है,
डांटता ही रहता है|

तब मैं खामोश क्यों न हो जाऊं?
मेरे हिस्से का भी बजना,
वही तो करता है|
मैं लोहे की यन्त्र हो कर भी भावमय हूँ,
वह मानव हो कर भी,
पूर्ण यांत्रिक, भावशून्य है|

जब मुझ जैसी घंटी को,
संवेदना और सहजता की ज़रुरत है,
तब आप सब को क्यों नहीं?
बस यही सोच कर,
कल, हाँ कल,
मैं नहीं बजी|

वैसे मैं घंटी हूँ|

Saturday, October 2, 2010

2.

मेरे बेटे,
तुमसे फोन पर बातें करना,
शीतलता भी देता है और विकलता भी.
तुम मम्मी के लिए रोने लगते हो,
और मैं तुम्हारे लिए.
छटपटाने लगती हूँ,
एक पानी से बाहर निकली हुई
मछली की तरह.
तुम्हारा छटपटाना माँ के लिए,
मेरा छटपटाना तुम्हारे लिए,
कैसी नियति है राजा बेटे,
यहाँ मैं अकेली,
वहां तुम अकेले.
कहीं पापा अकेले,
हर कोई अकेला.
तुम रोना नहीं, कमजोर भी न होना.
तुम्हे अपनी जिंदगी की राहें
तय करनी है निर्विघ्न.
इसलिए तो अभी से
इतना कष्ट सह रहे हो.
काश बता पाती मै,
यह बता  सकती
अपने बच्चे के लिए ,तड़पती छटपटाती एक माँ.
कि उसे क्या होता है?
यह पीड़ा शब्दों से,
आंसुओं से,
धडकनों से,
सभी से परे है

सभी से परे...
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यह कविता लिखी गयी थी जब मेरा बेटा पाँच साल की उम्र में ही सैनिक स्कूल तिलैया (जूनियर सेक्सन) के हॉस्टल में रहता था| आखिर पढाई जो करनी थी उसे|

1.

मै और किसे देखूं?
जब सामने हो तुम.
मै और किसे चाहूं?
जब सामने हो तुम.

तुमसे ही मेरी दुनिया,
तुम्ही से जिंदगी है.
तुम्ही हो सब में दिखते, 
सब तेरी ही बंदगी है.

अब और किसे सराहूँ?
जब सामने हो तुम.
मै और किसे चाहूँ?
जब सामने हो तुम.

यह रिश्ता है हमारा,
मन का विश्वास का,
प्यार के एहसास का,
जीवन के आशा का.

और किस से मैं निबाहूँ?
जब सामने हो तुम.
मैं और किसे चाहूँ?
जब सामने हो तुम.